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मैंने अन्ना के आंदोलन का कभी समर्थन नहीं किया. आलोचना करता रहा हूं. लेकिन आज लगता है कि कहीं कुछ टूट गया है. कहीं कुछ छूट सा गया है. जिसका डर था शायद आज वही हुआ है. जिस राजनीति को गालियां दी जा रही थी वही करने की घोषणा हो चुकी है तो फिर लोग ठगे हुए से क्यों न महसूस करें. असल में आम आदमी कभी अन्ना या आंदोलन के साथ नहीं था. वो हमेशा भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था और उसे लगता था कि अन्ना के नाम की टोपी लगा लेने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा. मुझे पूरी सहानुभूति है उन लोगों से जो समझते थे कि जंतर मंतर पर अनशन करने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा…उन लोगों से भी जिन्हें लगता था कि भारत माता की जय बोलने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा…….जो अन्ना के सामने हाथ जोड़ कर ऐसे सर झुका रहे थे मानो वो अन्ना नहीं भगवान का अवतार हों…और सर झुकाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा……मुझे उन सभी लोगों से भी सहानुभूति है जो वोट करने नहीं निकले थे लेकिन जंतर मंतर पर आए थे क्योंकि उन्हें आंदोलन से एक उम्मीद जगी थी……इस उम्मीद से मेरी सहानुभूति है.. कई लोगों को लगता है कि अन्ना की टीम ने इस उम्मीद के साथ दगा किया है. कई लोगों को लगता है कि ये एक विश्वासघात है और लोगों को मझधार में छोड़ दिया गया. रामलीला मैदान में जहां साफ साफ कहा गया कि राजनीति के मैदान में उतरना उद्देश्य नहीं है आंदोलन का. मुझे याद है कि आम जनता ने किस उत्साह से समर्थन दिया था. कहां तो बात हुई थी कि ये आज़ादी का दूसरा आंदोलन होगा. अगस्त क्रांति यही कहा था न अन्ना ने. कहां बात हुई थी व्यवस्था बदल देने की और आज लगता है अन्ना खुद बदल गए. आज अन्ना और उनके साथी भी उसी जमात में खड़े होने को चल दिए, जिस जमात को गालियां देते अन्ना टीम की जुबान नहीं थकती थी वो तालियों की गड़गड़ाहट, वो भारत माता के जयकारे, वो तिरंगे का हिलाना, वो जनता का जुनून और वो टीवी वालों की चीखो पुकार. मुझे तो नहीं लेकिन आम जनता को लगा था कि कुछ तो बदलेगा. लोग गांवों से पैदल चल कर आए थे आपका समर्थन करने. भूखे प्यासे लोगों ने आपके साथ अनशन भी किया था. लेकिन फिर क्या हो गया. साल भर में ही ऐसा क्या हो गया कि अन्ना भी उनके साथ ही खड़े होने को राज़ी हो गए. माना कि नेता लोगों के पास पैसे हैं गाड़ी है लेकिन कहते हैं कि अन्ना को तो कुछ नहीं चाहिए. तो क्या अन्ना के साथ के लोगों को कुछ चाहिए. आम लोगों को भ्रष्टाचार के बिना जीवन चाहिए. लेकिन शायद गलती आम जनता की थी. वो शायद ये भूल गया था कि आम आदमी आखिरकार आम आदमी ही है और आम आदमी की बात नेता क्या टीम अन्ना भी नहीं सुनती. मैं मानता हूं कि ये आने वाले दिनों में किसी भी जनांदोलन के लिए एक बड़ा धक्का है. चाहे जो भी हो कम से कम अन्ना के नाम पर लोग अपने घरों से निकले थे. लोगों ने ईमानदार होने की एक छोटी सी कोशिश की भी होगी अपने अपने स्तर पर. अब वो शायद कभी किसी पर विश्वास न करें और मान लें कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता. मैं नहीं मानूंगा कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता. मैं अपने स्तर पर जो संभव है करुंगा. मैं अपना अन्ना खुद बनूंगा और ईमानदार रहने की हर कोशिश करुंगा. शायद अब यही एकमात्र रास्ता बचा है हर आम आदमी के लिए कि वो उसके अधिकारों के लिए किसी दूसरे का मुंह देखना बंद कर करे और खुद अपनी राह तय करे.
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